‘अपना घर' आश्रम बना पीडित मानव सेवा का पावन तीर्थ
सुरेन्द्र प्रभात खुर्दिया/नई दिल्ली:- कहतें है कि परिचितों और जान-पहचान वालों के लिए हर कोई मददगार मिल जाता हैं। उसके लिए कोई भी मदद को तत्पर दिखाई देंगा-क्योंकि वह मिलने वाला हैं। परन्तु अनजान-अजनबी नागरिकों के लिए कोई मदद करने का साहस बहुत कम सेवाभावी जुटा पाते हंै। उनकी मदद करने या दो बोल सहानुभूति या करूणा के जताने - प्रकट करने में हिचकिचाते है।
पता नहीं कही ठगा नहीं जाऊ ! की भावनाओ से ग्रस्ति होता हैं। इसी असुरक्षा को लेकर कोई मदद को हाथ नहीं बढाता। इसके उलट कुछेक ऐसे जीवन्त नागरिक होते हैं जो अपना फर्ज अदा करने में पीछे नहीं हटते। अब यह कहावत का स्वरूप ले लें तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी मजा तभी है जब कोई अवासी प्रभू पीडि.त की मदद को तत्पर हो कर मदद करें।
मानसिक सेहत को लेकर जागरूक नहीं रहते वो कोई भी अवसाद, तनाव और अकेलापन ही नहीं दुत्कार दिए जाने का शिकार हो सकता है। वह कौन हैं, कहां से आया हैं। सभी बातें भूलकर भटकता रहता है। वो चैहराओं, बस स्टाॅफ, मैट्रों के आस पास मंडराते दिख जाएंगे परन्तु उन पर हजारो - लाखों नागरिक रोजाना गुजरतें रहतें मिल जाएंगे परन्तु कितने नागरिक ऐसें पीडि.त लोगों का नोटिस लेतें है।
‘अपना घर‘आश्रम से जुड.े सह - सचिव महेन्द्र भडैच की नजर रोहिणी पश््िचम मैट्रों चैक डिवाइडर पर अस्त - व्यस्तावस्था में पड.ा उसे देख कर अग्रवाल उसके पास गए और उस नाम, पता वगैरह - वगैरह पूछने पर कुछ भी नहीं बताने में असमर्थ देख कर कन्ही उसे कोई वाहन या अन्य र्दुघटना का शिकार नहीं बन जाए।
उन्हों ने अपना घर आश्रम के अधिकारियों से सम्र्पक किया और तब तक उसे बोतों में उलझाएं रखा ताकि उसे पुलिस के माध्यम से उसे आश्रम में पहंूचाया जा सके और अन्य पीडित अवासी की तरह देख भाल हो सकें और शीघ्र ठीक हो सकें और परिजना से मिलया जा सकें। महेन्द्र कहतें है कि ‘अपना घर‘आश्रम पुरूष और महिलाओं के लिए वर्तमान में पीडि.त मानव सेवा का पावन तीर्थ बना हुआ है।
ऐसे पीडि.त अवासियों को चाहें कोई भी क्यों नहीं हो उक्त प्रभुओं को आश्रम में पहुचाने तक कोई भी समाज सेवी या नागरिक समाज का व्यक्ति ऐसों को वहां पहुचाने पर उस की हर तरह से मदद कर सकता है। ‘अपना घर‘आश्रम पुरूष पंूठखुर्द और महिला अपना घर आश्रम, बढपुर जीटी, करनाल रोड कार्यरत है। यही उक्त महिलाओं के लिए 200 बैड की अवासीय व्यवस्था की गई है।
महेन्द्र का कथन है कि जब उस अवासीय व्यक्ति नाम तक नहीं बता पाता थ अब उसने अपना नाम सतपाल सन आॅफ भूरा नाई ही बता पाया है। ऐसें असहाय के मन से असुरक्षा की भावना को निकलना और सहानुभूति करूणा से पुनः सामान्य जीवन जीने योग्य बनाया जा सकता है।