सुरेन्द्र प्रभात खुर्दिया/दिल्ली:- नगरों और महानगरों में मासूम बच्चें - बच्चियों के साथ यौन उत्पीडन और दुष्कर्म की वारदातों के समाचार, समाचर - पत्रों में आए दिन पढने और देखने, सुनने को मिलते हैं। अभी हाल ही में राजधानी दिल्लीप्रदेश की तीन प्ले स्कूलों की बच्चियों के साथ छेडछाड और उनके साथ दुष्कर्म का मामला प्रकाश में आने के बाद बच्चों की सुरक्षा की चिन्ता को लेकर पूरा देश का नागरिक समाज चिन्तित है।
दिल्ली ही नहीं देश के छोटे -बड़े नगरों और कस्बों तक बच्चों के साथ छेड.छाड और दुष्कर्म की वारदातों से अछूतें नहीं रह गए है। देश के कोने-कोने में प्ले स्कूल कुकरमुक्तें की तरह उग आएं हैं, जिन पर किसी का नियंत्रण और कोई कानून नहीं हैं। वो भगवान भरोसे ही चल रहे हैं। हम बात कर रेहे हैं, गत दिनों दिल्ली की प्ले स्कूलों में जिन बच्चियों के साथ छेडछाड और दुष्कर्म की वारदात ने समस्त दिल्लीवासियों को ही नही समुचे देशवासियों को झिंझोड कर रख दिया हैं। मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक न कोई कानून, न कोई नियंत्रण हैं।
दिल्ली में तो प्ले स्कूल बिना रजिस्ट्रेशन के चल रहे हैं। यही नहीं सम्बधित विभाग का ऐसे प्ले स्कूलों का कोई रेगुलेशन नहीं हैं और वे उक्त शिक्षा निदेशालय के अन्तर्गत नहीं आते । जब निदेशालय के दायरे में ही नहीं हैं, तो उनकी कोई जिम्मेदारी नहीं बनती। यानी प्ले स्कूल भगवान भरोसे चल रहे हैं। जब दिल्ली के प्ले स्कूलों का रजिस्ट्रेशन नहीं है, तो यह भी कैसे पता चलेगा कि दिल्ली में कितने प्ले स्कूल चल रहे हैं। यही हाल अन्य प्रदेशों के प्ले स्कलों का होगा। क्योंकि प्ले स्कूल खोलने का रोग अन्य प्रेदशों को भी लग गया है। आज कल के प्ले स्कूल भी बिजनेस बन गया हैं और उच्च शिक्षा उधोग-धन्धें में तब्दील हो चुका हैं। क्योंकि इस में अच्छा मुनाफा जो बैठे-बिठाएं मिल जाता हैं। उनका क्या लगता हैं, सिर्फ एक कमरा और एक शिक्षक तथा एक ब्लेक बोर्ड बन गया - चल गया प्ले स्कूल। जानकरों की माने तो हर साल जिन के बच्चों का नर्सरी में प्रवेश नहीं मिलता वे अपने बच्चों को प्ले स्कूल में प्रवेश दिला देते है।
ऐसी स्थिति में बच्चें - बच्चियां कैस सुरक्षित रह सकती हैं और मासूम बच्चें अपनी पीडा को बयान तक नहीं कर सकते है, क्योंकि उनको किसी प्रकार के उत्पीडन का भान - ज्ञान नहीं होता। ऐसी स्थिति में में प्ले स्कूलों को निदेशालय के दायरे में और रजिस्ट्रेशन संबधी सख्त कदम उठाने चाहिए। बल्कि होना तो यह चाहिए कि शिक्षा मंत्रालय को अन्य राज्यों के प्ले स्कूलों पर यानी पूरे देश में राष्ट्रीय शिक्षा नीति बननी चाहिए ताकि प्ले स्कूलों को संबंधीत निदेशालय के दायरे लाया जा सके और रजिस्ट्रेशन होने से स्कूलों का पता चलसकेगा और प्ले स्कूल खोलने का रोग का एक मात्र यही इलाज भी है। यही नहीं यौन उत्पीडन पर अकूंश भी लग पाएगा। परन्तु यह तो शमशान वैराग की तरह मनोगत स्थिति हैं, वस्तुगत क्या ऐसा हो पाएंगा?
यह हमारे देश का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि जब तक कोई अनहोनी नहीं घट जाएं तब तक कानों पर जू तक नहीं रैंगती हैं। अभी हाल ही में तीन प्ले स्कूलों की बच्चियों के साथ ही नहीं आए दिन वारदातों में छेडछाड और दुष्कर्म को लेकर चिन्तित हैं। परन्तु भविष्य में आग से ऐसी वारदात ना हो उसके लिए न्यायालय की शरण में जाना पड रहा हैं सामाजिक कार्यकत्र्ता और याचिकाकत्र्ता नंदिता धरने दिल्ली उच्च न्ययालय में दायर एक जनहित याचिका के मन्तव्य को भूलाया नहीं जा सकता हैं कि स्कल जाने वाले बच्चों का कैब चालकों और बस चालकों द्वारा उत्पीडन किए जाने की हालिया घटनाओं को रेखाकित करते हुए उन्होने मांग की कि केन्द्र को इन बच्चों का यौन उत्पीडन रोकने के लिए दिशा निर्देश निधारित करने चाहिए। और बच्चों के यौन उत्पीडन को रोकने के लिए सभी स्कूल बसों और वैन जीपीएस प्रणाली और सीसीटीवी कैमरों से लैस करना चाहिए।
कानून के सहारे जो कर सकते थे वो भी समाजसेवकों द्वारा किया जा रहा हैं। परन्तु केन्द्र और राज्य सरकारे स्वज्ञान से वो क्या कदम उठाने जा रही है, उस पर सभी की नजरे लगी हुई हैं। परन्तु सोचनेवाली बात यह हैं कि सिर्फ कानून के सहारे कब तक? बच्चों के प्रति धृणित मानसिकता कब बदलेगी। उसको बदलने के लिए मनोवैज्ञानिकों का क्या कहना हैं। बच्चों के प्रति मानसिकता बदलने पर मोचिकित्कों की राय एक सी नहीं हैं वो अपने - अपने एंगल से देख रहे है। कुछेकों का मानना हैं कि ऐसी वारदात मानसिक विकृति के लोग करते है। कुछेकों का यह कहना कि घृणित मानसिकता की विकृति बता कर कानून से नहीं बचा जा सकता है। डॉक्टर दिपावली बत्रा { मनोचिकित्सक , बंत्रा अस्पताल } का कथन है कि इस तरह के कुत्सित विचार रखने वाले लोगों में एक घारणा होती है कि बच्चे उनके चंगुल में आसानी से फंस सकते हैं। ऐसे लोगों में मानसिक विकृति पाई जाती है। जिसे छोटी बच्चे और बच्चियों को ही अपना शिकार बनाना चाहते है। साथ ही उनमें लगातार नशे का सेवन करने से भी मानसिक सोच कम हो जाती है और क्या गलत है और क्या सही, वह यह नहीं सोचते हैं।
परन्तु मानव व्यवहार एवं सम्बन्ध विज्ञान संस्थान इहबास एसोसिएट प्रो.ओमप्रकाश कहते है कि अपराधी - अपराधी होता हैं, कुत्सित भवाना से इंकार नहीं करते हैं परन्तु वो इस दृटिकोण से भी देखते कि कही अपराधी मानसिक विकृति का सहारा लेकर बचना चाहें तो बच नहीं सकता है। ऐसे कई मामलों में भी अपराधियों ने सहारा लेने पर सजा तक हुई है। यौन हिंसा ना मानसिक विकृति हैं नहीं मनोरोग या अन्य प्रकार की बीमारी। यह अपराध की गिनती में आता है। अगर ऐसा है तो फिर आन्तकवादी और उग्रवादी की मन और मस्तिष्क की मन: स्थिति को मनोरोग और मानसिक विकृति बता कर बच निकल सकते हैं। बच्चो के प्रति यौन हिंसा एक ज्वलन्त राष्ट्रीय समस्या बन गई है। बच्चे और बच्चिया ऐसे कुछेक नागरिकों के बहलाने -फुसलाने में आसानी से चंगुल में आ जाते है और यौन हिंसा का शिकार बन जाते है।
यौन हिंसा या किसी भी प्रकार के उत्पीडन के लिए धर्म और संस्कित जनित मानसिक स्थिति को मूल जड मानने वाले डा. पुरूषोत्तम मीणा का मन्तव्य को भूलाया नहीं जा सकता है। उन्होंने सटीक टिप्पणी करते हुए कहा हैं कि ‘‘ यदि हम में सच कहने की हिम्मत है तो हम सच कहें और देश की आधी आबादी को गुलाम मानने, गुलाम बनाऐं रखने, उसको बल्लत्कार तथा भोग की वस्तु मात्र रहने देने और नारी को गुलाम समझने की शिक्षा देने वाले हमारे तथाकथित धर्म ग्रन्थों, कथित सांस्कृतिक संस्करों और कथित सामाजिक { कु } शिक्षओं के सामाजिक वाहकों को हमें साहस पूर्वक ध्वस्त करना होगा। क्या हम ऐसा करने को तैयार हैं? शायद नहीं। ‘‘ अभी तक तो ऐसा करने की कोई टिमटिमाती आशा की किरण भी दिखायी नहीं दे रही है। यही नहीं किसी के अजेंडे तक में नहीं है। धर्म और संस्कृति, सामाज जनित मनसिकता बदलने की दरकार है।