महाराष्ट्र विधानसभा के चुनावों में दो भागों पिसते नजर आ रहे है प्रत्याशी
सुरेन्द्र प्रभात खुर्दिया:- अब तक यह कहावत सुनते आए हैं कि दो पाटों के बीच आम नागरिक पिसता आ रहा हैं। परन्तु इस बार महाराष्ट्र विधानसभा के चुनावों में दो पाटों के बीच यह वो प्रत्याशी पिसता नजर आ रहा हैं। हैं, ना विचित्र सत्य किन्तु आश्चर्यचकित कर देने वाली बात। आज के बाद अब यह कहावत चलन - प्रचलन में आ जाएगी। दो पाटों के बीच पिसतें जनताजर्नादन नहीं बल्कि राजनीतिक दलों के उम्मीदवार हैं। हैं ना, हैरान कर देन और चैंकादेने वाली बात और सटीक कहावत भी। भला यह कैसे हो सकता हैं, परम्परागत कहावतों, मुंहावरें क्या बदल जातें हैं। जी, हां इस बार के चुनाव में ऐसा ही हुआ हैं और होने जा रहा हैं। लेकिन सोचने वाली बात यह हैं कि वो क्या कारक हैं जो नई कहावत को ईजाद कर दिया हैं। वो हैं, चीनी मिल मालिक और गन्ना किसों के बीच चल रही रस्साकशी जिसने राजनीतिक पार्टी के प्रत्याशियों तक की जान सांसत में आ गयी हैं। कहिए कि किंवकत्र्तव्यविमूढ. हो गए है। किस को नाराज करे, किस को खुश। उनकी इस वक्त मनोदशा सांप छछून्दर की जैसी हो गई हैं जो ना निगलते बनती नहीं उगलते बन रही हैं। कोई उम्मीदवार उनका कोपभाजन बनना नहीं चाहता हैं। क्योंकि सबसे ज्यादा तादाद गन्ना किसानों की है और वो मतदाता भी हैं, सभी प्रत्याशीगण उनका वोटबटोरना चाहते हैं, परन्तु उन्हें कैसे रीझाएं। उनकी समस्या कोई मुद्दा बन नहीं सकी। अर्थात उनके माल का उचित मुल्य के लिए आज दिन तक भटक रहे है। उधर चीनी मिल मालिक उनका माल सस्ती कीमत तक ही सीमित रखना चाह रहे हैं। यही स्थिति - बात असमंजस की बनी हुई हैं, इस विधानसभा के चुनाव में और यही प्रत्यशियों के लिए सबसे मुसीबत है।
कांगेस - एनसीपी की पिछली सरकार ने सत्ता छोड.ने से पहले तय नहीं किया दाम और नहीं शुगर बोर्ड का गठन किया जो गन्ने की कीमतों का अंतिम फैसला लेते । और मजेदार बात यह हुई कि कांगेस - एनसीपी सरकार ने नए बोर्ड के गठन का प्रस्ताव किए बगैर ही इस्तीफा दे दिया। जिस की वजह से बोर्ड का होने या नहीं होने का कोई मतलब नहीं रह गया। जानकारों की माने तो चुनाओं से पहले केन प्राइस बोर्ड की बैठक मुश्किल लग रही है। दुसरी तरफ चीनी मिल इंडस्टंी रंगराजन समितिकी सिफारिशों के आधार पर रेवेन्यू शेयरिंग फार्मूला अपनाए जाने की मांग कर रही है। अर्थात गन्ना किसानों को उनकी फसल का उचित मूल्य नहीं देना चाहती, चीनी मिलों को घाटे का सौदा बता कर बहाना बना रही है और मिलों को बन्द होने की कि आशंका के ही कारण सरकार ने रंगराजन समिति का गठन किया था। वैसे देखा जाए तो भारत में गन्ने की कीमत तय करना हमेशा से ही विवादित मुद्दा रहा है। महाराटं के बाद उत्तरप्रदेश दूसरा सबसे बड.ा चीनी उत्पादन राज्य है। वहा पर भी कीमतों को लेकर द्धन्द्धात्मक स्थिति बनती रही है । महाराटं गन्ने की कीमतों को लेकर कोई निर्णय नहीं हो सका क्योंकि चुनाव होने के कारण गन्ना की पेरोई में किसान असमंजस की स्थिति में है। अब आनेवाली सरकार ही शुगरकेन बोर्ड का गठन करेगी और सामने होगी नई कई चुनौतिया।
स्वाभिमानी शेतकारी संगठन का विधानसभा के चुनाव में फिलहाल वह बीजेपी के साथ गठबन्धन में हैं। उक्त गठबन्धन स्वाभिमानी शेतकारी संगठन शुगर प्राॅडक्शनकी इकनाॅमिक्स और किसानों के हित में गन्ने की सही कीमत की मांग कर वह मिल मालिकों की गोलबंदी करने में सफल रहे है। वह कितने सफल रहें यह तो समय ही बताएंगा । गन्ना किसान अपने मतों का ऊंट किस करवट बैठ जाएं कोई कह नहीं सकता वही निर्णनायक भूमि का अदा करेगा। उसी को रीझाने में सब लगे हुए है। परन्तु सवाल यही हैं कि चीनी मिल मालिको और गन्ना किसानों की रस्सकशी ही सबसे बडी मुसीबत है। देखने वाली बात यह हैं कि कोन किस पर भारी पड.ता है।
आगामी 15 अक्टूम्बर को महाराटं की 288 सीटों के लिए होने जा रहे विधानसभा चुनावों से पहले किए गए सर्वे और मीडिया रिपोर्टं के मुताबिक राज्य में बीजेपी और उसकी सहयोगी पार्टियों की सरकार बनती दिख रही है। और कुछ हो या ना हो परन्तु बीजेपी सबसे बड़ी पार्टी के रूप में स्थापित होने की संभावनाओं को देखते हुए वही पूर्ण बहुमत से सरकार का गठन करले या गठबन्धन की सरकार बना भी ले तो भी उसके सामने सबसे बड़ा सवाल वही आने वाला होगा कि चीनी मिल मालिको और गन्ना किसानों की रस्सकशी उसके सामने सबसे चुनौती होगी। ऐसे में सबकी नजरे नवनिर्वाचित सरकार पर होगी। हमारे देश में गन्ने की कीमत को तय करना विवादित मुद्दा यदि मुद्दा नहीं रहेगा तो दो पाटों के बीच फसा बैचारा प्रत्याशी भी बैचारा नहीं होगा यानी दो पाटों के बीच साबित बच जाऐगा। चुनाव से पहले और चुनाव के बाद यह और वो प्रत्याशी।