कहने को भारत कामसूत्र का देश है। यहां मंदिरों में भी यौन संबंधों का चित्रण हो सकता है। लेकिन अभी भी भारतीय समाज में ड्राइंगरूम में पारिवारिक माहौल के बीच सेक्स यानी यौन संबंधों पर बात करना एक नैतिक अपराध है। खासकर मध्यमवर्गीय परिवारों में जिससे भारत का बड़ा समाज बनता है। कुछ वाकयों को छोड़ दे तो ऐसे मौके पर घर के सभी सदस्य किसी न किसी बहाने वहां से खिसक लेते हैं या बात का रुख किसी और मुददे पर मोड़ देते हैं। फिर भी कोई सेक्स पर बात करने पर अड़ा रहे तो उसे डांट दिया जाएगा, ये कह कर, 'चलो बंद करो बकवास, बहुत बेशर्म होते जा रहे हो आजकल।' ऐसा क्यों होता है...जिंदगी का एक अहम हिस्सा सेक्स हमारे सार्वजनिक चर्चा में अछूत बन गया है। इस पर बात करने की अघोषित मनाही आखिर क्यों है? सेक्स ही नहीं वर्जिनिटी यानी कौमार्यता, अंडरगारमेंट्स, पीरियड्स और समलैंगिक संबंध जैसे शब्द हमारे मुंह पर संकोच का ताला जड़ देते हैं। दरअसल जिस पृष्ठभूमि से हम संबंध रखते हैं वहां सेक्स या इससे जुड़ी कोई भी बात सार्वजनिक रूप से करना वर्जित माना गया है और अगर कोई ऐसा करे तो उसे तीखी, लगभग खा जाने वाली नजरों से ही देखा जाएगा। जानिए ऐसे ही कुछ वर्जित शब्दों और विषयों के बारे में जिन पर बात तक करना बेशर्मी माना जाएगा।
सेक्स' अब भी अघोषित तौर पर वर्जित शब्द है। इस पर कुछ भी लिखिए, सब चोरी छिपे और रस लेकर पढ़ेंगे लेकिन सार्वजनिक तौर पर इस पर बात करने से लजा जाएंगे। सेक्स पर बात छिड़ी नहीं कि लोग अगल-बगल झांकने लग जाएंगे। अक्सर ही इस शर्म और संकोच के चलते टीवी का चैनल बार बार बदला जाता है। मशहूर उपन्यासकार और 'रिवाइज्ड कामसूत्र' के लेखक रिचर्ड क्रास्टा मानते हैं कि पूरी दुनिया से इतर अधिकतर भारतीयों के लिए सेक्स अब भी एक वर्जित शब्द है। ऐसा नहीं है कि हम अपने जीवन में सेक्स की अहमियत नहीं जानते। यकीन कीजिए भारतीय जनमानस को सेक्स बहुत प्रिय है। भारतीय अपनी फिल्मों में सेक्स देखना चाहेंगे, साहित्य में सेक्स पढ़ना चाहेंगे लेकिन इस पर चर्चा करने से ऐसे बचेंगे मानो फांसी लग जाएगी। सड़कों और बस अड्डों पर 'बी' और 'सी' ग्रेड फिल्मों के उत्तेजक पोस्टरों को खा जाने वाली नजरों से निहारते बहुत दिख जाएंगे, लेकिन यही लोग अपने परिचितों के बीच सेक्स पर सार्थक बहस तक नहीं करना चाहेंगे। यकीन कीजिए कि महिलाओं पर निकलने वाली मैगजीन को पढ़ने वाले ज्यादातर पुरुष ही होते हैं। फुटपाथ पर बिकने वाले अश्लील साहित्य और 'मस्तराम' के दीवानों की यहां कमी नहीं।
लेकिन यही लोग घर परिवार और दोस्तों के बीच या अपने बच्चों को सेक्स की सही शिक्षा और जानकारी देने में आनाकानी करेंगे। चलिए, सेक्स एजुकेशन की ही बात करते हैं। कई देशों में प्राइमरी के बच्चों को सेक्स एजुकेशन दी जा रही है और हम अपने मेडिकल स्टूडेंट्स की क्लास में ही सेक्स पर चर्चा नहीं कर पाते। टीचर और परिजन इशारों में ही इस बात को 'गंदी बात' कहकर बच्चों को डरा देते हैं। अगर क्लास में टीचर संकोच करे और सेक्स एजुकेशन के नाम पर बच्चों को 'दो फूलों के मिलने' और 'चोंच लड़ाते बतख' दिखाने लगे तो क्या होगा। नादान बच्चे ऐसे दो फूल और चोंच लड़ाती बतखों को खोजते हुए किसी ऐसी बगिया या तालाब में जा फसेंगे जो उनके लायक तो बिलकुल नहीं। जाने माने सेक्सोलॉजिस्ट डॉ. महेश नवाल सेक्स एजुकेशन की पैरवी करते हुए कहते हैं, "स्कूल और परिवार के स्तर पर सेक्स एजुकेशन पर बात की जाए तो बड़े होते बच्चे मातृत्व, अनचाहे गर्भ, यौन अपराध, गुप्त रोग तथा एड्स जैसी गंभीर बीमारियों से बच सकते हैं।" नवाल कहते हैं, "भारत में सेक्स संबंधी वैज्ञानिक व तार्किक पहुलओं पर सार्वजनिक बातचीत नहीं की जाती। जबकि सेक्स भी एक शारीरिक क्रिया है जैसी कि अन्य शारीरिक क्रियाएं।"
हम शादी को जितना पवित्र मानते हैं, उतना ही अपवित्र शादी से पहले सेक्स को बताते हैं। बाकी दुनिया को शादी और सेक्स के बीच कोई खास रिश्ता नहीं दिखता लेकिन हमारे यहां सेक्स दूसरा चरण है जो शादी के बाद ही आना चाहिए। शादी से पहले सेक्स की वकालत करने वाले यहां बेशर्म और बेहया माने जाते हैं। विवाह पूर्व सेक्स को गंभीर अपराध कहने वालों की नजर में सेक्स केवल 'संतानोत्पत्ति के लिए किया जाने वाला दांपत्य कर्म' है। इसका प्रेम, शारीरिक आवेगों और व्यक्तिगत मनोभावों से कोई लेना देना नहीं। कुछ साल पहले दक्षिण भारतीय अभिनेत्री खुशबू ने शादी से पहले सेक्स की वकालत की थी। कुछ ही घंटों में खुशबू को इस बयान के लिए सार्वजनिक तौर पर माफी मांगनी पड़ी क्योंकि उनके घर और दफ्तर पर पत्थरबाजी होने लगी थी।
हालांकि आजकल कुछ सेलेब्रिटीज शादी से पहले सेक्स और लिव इन की वकालत करते नजर आते हैं लेकिन उन पर भी शादी जैसी संस्था को बदनाम करने की साजिश के आरोप लगते रहते हैं। कहा जाता है कि वो मुफ्त की पब्लिसिटी के लिए अनाप शनाप बयान देकर हमारी भारतीय संस्कृति को चौपट कर रहे हैं। शादी से पहले सेक्स की बात करने वाली लड़कियां 'चरित्रहीन' कही जाएंगी और लड़के 'यहां वहां मुंह मारने वाले'। हालांकि शादी से पहले सेक्स के मामले में लड़कियों को लेकर हमारा समाज कुछ ज्यादा फिक्रमंद है। इसकी नजर से देखो तो शादी से पहले सेक्स कर लड़की अपवित्र हो जाती है और शादी के लायक नहीं रहती। 'अपना शरीर सिर्फ पति को ही सौंपना चाहिए। भले ही पति शादी से पहले तमाम रंगरलियां मना चुका हो।' हालांकि कुछ बदलाव तो आए हैं। लड़कियां मानसिक और शारीरिक तौर पर आजादी से फैसले कर पा रही है। 'लिव इन' ने शादी से पहले सेक्स की अवधारणा को तोड़ा है। शहरों में शादी से पहले एक साथ रह रहे युवक युवतियां एक दूसरे को परख रहे हैं।
शादी से पहले सेक्स करना या न करना, किसी व्यक्ति की निजी राय या पसंद हो सकती है। लेकिन हम ये मानने को तैयार नहीं। हमने सेक्स को एक 'दांपत्य कर्त्तव्य' की तरह महिमामंडित कर दिया है। इसे शादी के बाद ही करना चाहिए और इस पर बात तो कतई नहीं करनी चाहिए। जो करना है शादी के बाद करो। बात करो तो भी बंद बैडरूम में।
हाल ही में भारतीय सेसर बोर्ड ने एक फिल्म के संवाद 'आई एम वर्जिन' (मैं कुंवारी हूं) पर यह कहते हुए कैंची चला दी कि यह अश्लील है। सेंसर बोर्ड का तर्क है कि इस अश्लील शब्द को सार्वजनिक तौर पर नहीं बोला जाना चाहिए। हालांकि बाद में सेंसर बोर्ड ने फिल्म यह डायलॉग बनाए रखने की अनुमति दे दी लेकिन सवाल लाजिमी है कि वर्जिनिटी या कौमार्यता पर बात करना अश्लील और बेशर्मी क्यों है। अपने आसपास देखिए जरा, कौमार्यता यानी वर्जिनिटी पर कुछ भी बात करते हुए हम इधर -उधर झाँकने लग जाते हैं, मानों कोई अपराध कर दिया हो। कौमार्यता पर चर्चा करना आज भी हमारे बीच संकोच की बात है और ये वो शब्द है जिसे आप अपने परिजनों के बीच नहीं बोल सकते।
दरअसल हमारे समाज ने वर्जिनिटी यानी कौमार्य को किसी लड़की की पवित्रता से जोड़ दिया है। इसे एक परिवार के मूल्यों और संस्कारों का सवाल बनाकर देखा जा रहा है। हालांकि कौमार्य को लेकर जनता की सोच बदली है लेकिन इतनी नहीं कि इस पर खुलकर बात हो सके। यहां लड़के बंद कमरे में भले ही इस मसले पर जमकर हंसी ठठ्ठा करते हो लेकिन अगर कोई लड़की अपने कौमार्य के मामले में सार्वजनिक तौर पर कुछ कह दे तो उसे बेशर्म करार देने में लोगों को समय नहीं लगेगा।
हालांकि वर्जिनिटी की जिज्ञासा लोगों को अब डॉक्टरों के पास ले जा रही है। शादी से पहले और बाद में कौमार्य को लेकर लड़के लड़कियां डॉक्टरी सलाह ले रहे हैं। हालांकि इसका मकसद भी होने वाली बीवी या पति का चरित्र जानना ही है। पिछले दिनों सिनेमाई स्टारों ने अपनी वर्जिनिटी पर सार्वजनिक बयान दिए हैं। नए नवेले बॉलीवुड एक्टरों ने भी इंटरव्यू में अपनी पहली डेट, फर्स्ट क्रश, वर्जिनिटी गंवाने और पहली डेट पर खुलकर बातचीत की है। लेकिन यह रवैया सिनेमाई स्क्रीन से निकल कर समाज तक कब पहुंचेगा, कहना मुश्किल है।
एक तरफ जहां विदेशी हस्तियां चैरिटी के लिए अंडरगारमेट्स दान कर नेम और फेम लूट रही हैं। भारतीय लड़कियां इस चिंता में मरी जा रही है कि बालकनी में तौलिए के नीचे सूख रहे अंडरगारमेंट्स किसी को दिख तो नहीं गए। पैंटी और ब्रा कहने पर हलक सूख जाता है बेचारी लड़कियों का। उन्हें हर पल यही चिंता सताती रहती है कि ब्रा की स्ट्रिप कहीं कपड़ों से बाहर न झांक रही हो या पैंटी कहीं अलमारी से बाहर तो नहीं रह गई। बाथरूम में भी बाहर आओ तो अपने अंडरगारमेंट्स कमरों के दरवाजों के पीछे, परदों के पीछे या स्टोर की खूंटी पर सुखाओ..ताकि किसी की नजर न पड़े।
बस या मेट्रो में लड़कियों की सबसे बड़ी जंग अपने इन्हीं कपड़ों को छिपाने की होती है। दूसरी तरफ किसी महिला के कपड़ों से ब्रा की पट्टी भी झलक जाए तो पुरुषों की नज़र वहीं जाकर टिक जाती है। औरतें इस शब्द से इतना संकोच करती हैं कि होजियरी की दुकान पर अंडरगारमेंट्स खरीदने जाएं और वहां महिला की जगह पुरुष खड़ा मिले तो कई तो संकोच में बिना कुछ खरीदे ही लौट आएंगी। कई महिलाएं उन दुकानों को तरजीह देंगी जहां सेल्सगर्ल उन्हें प्रोडक्ट दिखाए और बेचे। पिछले दिनों किसी संगठन ने याचिका दायर कर मांग की कि हर होजियरी की दुकान पर सेल्समैन की जगह सेल्सगर्ल तैनात हो। दुकानों के बाहर अंडरगारमेंट्स पहने महिलाओं के पुतले हटाए जाएं। ये मांग बताती है कि जमाना भले ही कितना आगे बढ़ जाए लेकिन अंडरगारमेंट्स पर हमारी दकियानूसी मानसिकता फिलहाल नहीं बदलने वाली।
अधिकतर लोगों का कहना है कि वो कैमिस्ट के पास जाकर 'कंडोम' मांगने से इसलिए शर्माते है कि लोग जान जाएंगे कि वो सेक्स करने वाले हैं, और वो ऐसा किसी भी कीमत पर नहीं चाहते। इसी शर्म के चलते 'जरा कंडोम देना' कहने की बजाय....'वो देना जरा'..कहना ज्यादा मुफीद है। अब तो कैमिस्ट भी इशारा समझ कर सही चीज निकाल कर हाथ में थमा देता है। ये जानते हुए भी असुरक्षित सेक्स के दौरान कंडोम कितना कारगर है, हम कंडोम बोल तक नहीं पाते। कंडोम को लेकर ये झिझक ही सेक्स समस्याओं और एड्स जैसी गंभीर बीमारियों का शिकार बना रही है।
इसके पीछे एक मानसिक बनाम सामाजिक मान्यता हावी है। सरकार सुरक्षित सेक्स के लिए कंडोम अभियान चला रही है और हम हैं कि बेडरूम की गतिविधियों के पता चलने के कथित डर से ही मरे जा रहे हैं। आपको याद होगा, इसी संकोच के चलते मध्य प्रदेश में महिला स्वास्थ्य कर्मियों ने यह कहते हुए घर घर जाकर कंडोम बांटने से इनकार कर दिया था। इनका कहना था कि उन्हें उन्हें शर्म आती है। इसकी एक बड़ी वजह ये भी थी कि महिला कार्यकर्ताओं को देखकर घरों के पुरुष दुबक जाते थे ताकि उन्हें खुले में कंडोम न लेना पड़े। दमोह जिले में आशा ग्रुप की अध्यक्षा ने तो यहां तक कह डाला कि जेठ समान पुरुषों को कंडोम बेचना सामाजिक मर्यादा के खिलाफ है। अब इसे क्या कहेंगे?
थाइलैंड के कंडोम स्पेशल रेस्टोरेंट 'कैबेज एंड कंडोम' के बारे में तो सुना ही होगा। इस रेस्टोरेंट की खासियत कंडोम ही है। यहां खाने के बाद कस्टमर को कंडोम पकड़ाया जाता है। यहां दीवारों को कंडोम से ही सजाया गया है, वेटरों की टोपी कंडोम जैसी है। रेस्टोरेंट का कहना है कि वो ऐसा करके लोगों की झिझक तोड़ना चाहता है। है ना बेहतरीन उदाहरण, काश हमारे यहां भी कुछ ऐसा हो सके और बेकार की ये झिझक हटे। पिछले दिनों फिल्म अभिनेता रणबीर सिंह ने यह कहते हुए कंडोम का एक विज्ञापन किया कि लोगों में असुरक्षित सेक्स के प्रति जागरुकता आएगी और कंडोम को लेकर लोगों की झिझक टूटेगी। विज्ञापन और रणबीर तो हिट हो गए लेकिन कंडोम पर लोगों की झिझक कब टूटेगी, इसका इंतजार है।
'चुप चुप खड़ी हो जरूर कोई बात है' टीवी पर सेनेटरी नेपकिन के इस पहले विज्ञापन के आते ही पापा - मम्मी या बड़े हकबका कर टीवी का चैनल बदल देते थे। आज ऐसे बेबाक विज्ञापनों की लाइन लगी है लेकिन लेकिन फिर भी मासिक धर्म यानी पीरियड्स को लेकर हमारे रवैये में इंच भर का भी बदलाव नहीं आया है। आज भी पीरियड्स की बात 'कोड वर्ड' में की जाती है, घर परिवार में तो इसे केवल संकेतों से समझाने की कला भी औरतों ने सीख ली है। गांव कस्बों में तो पीरियड्स के समय युवतियों के साथ अछूत जैसा व्यवहार होता रहा है। मसलन किसी वस्तु को न छुओ, मंदिर में कदम न रखो, स्कूल-कॉलेज मत जाओ, मर्दो से बातें न करो, अचार को हाथ न लगाओ, बाल मत धोओ, काजल या पाउडर न लगाओ, तुलसी के पेड़ को न छुओ। इनके पीछे तर्क कोई नहीं लेकिन फिर भी इन नियमों का पालन करना लड़कियों की मजबूरी है।
आप यकीन नहीं करेंगे लेकिन दक्षिण भारत के कुछ हिस्सों में लड़कियां इन दिनों घर के बाहर छप्पर में रखी जाती हैं। कहते हैं कि अगर इस दौरान किसी मर्द ने उन्हें देख भर लिया तो चेहरे पर फुंसियां निकल आएंगी। घर से बाहर निकली तो शैतानी ताकत उनमें प्रवेश कर जाएगी। सिर्फ रात के समय जब घर के मंदिर के कपाट बंद हों, लड़की को अंदर आकर सोने की अनुमति मिलती है। हालांकि शहरों में सेनेटरी नेपकिन के विज्ञापनों और अभियानों ने हालात सुधारे हैं लेकिन लड़कियां अभी भी इसे छिपाने को मजबूर हैं।
ऑफिस में होंगी तो बैग से सेनेटरी नेपकिन इस तरह छिपाकर बाथरूम ले जाएंगी मानो कोई चोरी कर रही हों। किसी ने देख लिया तो क्या होगा? स्कूल में अपनी सहेलियों को स्कर्ट या सलवार जांचने का इशारा करना "जरा देखना कोई दाग तो नहीं पड़ा"। बाथरूम जाने से कतराना। सेनेटरी पैड्स को घर में ऐसी जगह छिपाना, जहां पापा भाई या किसी मर्द के हाथ न पड़ जाएं। अरे भई! पीरियड्स कोई अपराध नहीं है, एक शारीरिक प्रक्रिया है।
बस या मेट्रो में सफर करते हुए लड़कियां पीरियड्स पर बात करते हुए कोड वर्ड इस्तेमाल करती है ताकि आस पास के लोगों को पता न चले। 'आंटी आ गई', 'डाउन हूं', 'केक कट गया', 'आई एम सिंकिंग',� जैसे कोड वर्ड इसी शर्म के चलते ईजाद कर लिए हैं बेचारी लड़कियों ने। कैमिस्ट के पास जाकर सेनेटरी नेपकिन खरीदने जाओ तो भी संकोच में मांगा नहीं जाता।बिलकुल धीरे से कहेंगी और आस पास देखती रहेंगी कि कोई गौर तो नहीं कर रहा। फिर कैमिस्ट को ये रिक्वेस्ट करना कि अखबार में लपेट कर दो। हाल ही में सेनेटरी नेपकिन बनाने वाली एक कंपनी ने पीरियड्स के प्रति जागरुकता लाने के लिए 'टच द पिकल' अभियान चलाया जिसके माध्यम सोसाइटी के संकुचित रवैये पर चोट की गई। इस अभियान का उद्देश्य है कि पीरियड्स एक शारीरिक क्रिया है न कि कोई अपराध या संकोच की वजह।
'आदमी हूं आदमी से प्यार करता हूं...' अगर आप चार लोगों के बीच ये गाना गुनगुनाएं तो निश्चित तौर पर आपका उपहास उड़ेगा। इतना ही नहीं आपके समलैंगिक होने की चर्चाएं आम हो जाएंगी। अगर आप घर पर किसी समलैंगिक दोस्त या सहेली की बात करेंगे तो परिजन उसे भला बुरा कहते हुए आपको ही उससे दूर रहने की सख्त नसीहत दे डालेंगे। समलैंगिकता को भले ही कई देशों में कानूनी और सामाजिक जामा पहना दिया गया हो लेकिन भारतीय समाज में इसे अभी भी वर्जित और व्याभिचार की श्रेणी में रखा गया है। समलिंगी होना और समलैंगिता पर बात करना एक सामाजिक गुनाह की तरह है। घर परिवार को छोड़ दीजिए आप दोस्त यारों के बीच भी इस तरह की बात करेंगे तो आपकी दोस्तियां टूट जाएगी।
यहां किसी समलिंगी की बात छिड़ते ही लोग उसके बारे में उल्टा सीधा बोलना शुरू कर देंगे...सार्वजनिक स्थानों और समारोहों में ऐसे लोगों के साथ भद्दे मजाक किए जाते हैं और बुरा व्यवहार किया जाता है। दिल्ली में समलैंगिक अधिकारों के लिए काम कर रही नाज फाउंडेशन के एक सदस्य ने बताया कि समलिंगी भी आम लोगों की तरह होते हैं लेकिन सार्वजनिक जीवन में उनका बहुत उपहास उड़ाया जाता है। हालांकि उपहास के डर से अधिकतर समलैंगिक अपनी पहचान छिपा कर रहना पसंद करते हैं लेकिन जैसे ही दूसरे लोगों को पता चलता है तो उनके दोस्त और रिश्तेदार उनके किनारे हो जाते हैं। बड़े बूढ़े कहते मिल जाएंगे कि ये बीमारी पश्चिम से आई है। लेकिन समलैंगिक संबंधों के चलन नया नहीं है। एक हजार साल पहले बनी खजुराहो की मूर्तियां इस बात का प्रमाण हैं।
जहां एक छत के नीचे समान लिंग के युवा स्त्री या पुरुष लंबे समय तक साथ साथ रह रहे हों, वहां ऐसे संबंध बन जाते हैं। लड़कों या लड़कियों के हॉस्टल, पुलिस छावनियां, सुरक्षा बलों के एरिया, जेल और सुधार गृह जैसी जगहों पर समलैंगिक संबंध बनने के आसार ज्यादा होते हैं। अंग्रेजों के काल में अपने वतन और घर परिवार से दूर नियुक्तियों पर आए ब्रिटिश अधिकारियों और कर्मियों के बीच ऐसे संबंध ज्यादा बनने लगे तो ब्रिटिश सरकार ने 1861 में इसे दंडनीय अपराध घोषित कर दिया।
एक ओर जब पश्चिम का समाज समलैंगिकता के विषय में धीरे धीरे खुल रहा है और विवाह की अनुमति भी दे रहा है तब भारत में इस बात पर विवाद है कि समलैंगिकता व्याभिचार है या महज एक शारीरिक प्रवृत्ति? इसलिए तय है कि भारतीय समाज को खुलकर इस विषय पर बोलने और विचार करने में अभी काफी देर लगेगी।